Kabir Das ka Jivan Parichay In Hindi

Kabir Das के जीवन से संबंधित विभिन्न तथ्यों की प्रमाणिकता संदिग्ध है । स्वयं उनके द्वारा रचित काव्य एवं कुछ तत्कालीन कवियों द्वारा रचित काव्य ग्रंथो में उनके जीवन से संबंधित तथ्य प्राप्त हुए हैं । इन तथ्यों की प्रमाणिकता के संबंध में विद्वानों में अत्यधिक मतभेद हैं । उनके जीवन वृत पर प्रकाश डालने वाले तत्वों को कबीर चरित्र बोध भक्तमाल कबीर पर्चे आदि जिन गिरंथो के आधार पर संकलित किया गया है, अभी तक इन ग्रंथों की प्रमाणिकता भी सिद्ध नहीं हुई है इनका जीवन-वृत इस प्रकार है –

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Kabir Das का प्रारंभिक जीवन और परिवार

सन्त Kabir Das का जन्म संवत 1455 (सन 1398 ईo ) में नीरू नामक व्यक्ति के घर हुआ था । इनकी माता का नाम नीमा था । यह एक जुलाहा परिवार था । कुछ विद्वानों कहना है कि कबीर किसी विधवा ब्राह्मणी के पुत्र थे, जिसने लोक लाज के भय से उनको जन्म देते ही इन्हें त्याग दिया था । यह नीरू एवं नीमा को कहीं पड़े हुए मिले थे और उन्होंने इनका पालन पोषण किया था । कबीर के गुरु का नाम संत स्वामी रामानंद था जो काफ़ी प्रसिद्ध थे।

जन श्रूर्तियो के आधार पर यह स्पष्ट होता है Kabir Das विवाहित थे । उनकी पत्नी का नाम लोई था । उनकी दो संतानें थी – एक पुत्र और एक पुत्री । पुत्र का नाम कमाल था और पुत्री का नाम कमाली । यहां यह यादरखने योग्य है कि अनेक विद्वान कबीर के विवाहित होने का तथ्य स्वीकार नहीं करते । इन विद्वानो के अनुसार कमाल नामक एक अन्य कवि हुए थे, जिन्होंने कबीर के अनेक दोहों का खंडन किया था । वे कबीर के पुत्र नहीं थे ।

कबीर दास की मृत्यु

अधिकांश विद्वानों के अनुसार Kabir Das 1575 विo (सन 1518 ईस्वी) में स्वर्गवासी हो गए । कुछ विद्वानों का मत है कि उन्होंने स्वेच्छा से मगहर में जाकर अपने प्राण त्यागे थे । इस प्रकार अपनी मृत्यु के समय में भी उन्होंने जनमानस में व्याप्त उस अंधविश्वास को आधारविहीन सिद्ध करने का प्रयत्न किया, जिसके आधार पर यह माना जाता था की काशी में मरने पर स्वर्ग प्राप्त होता है और मगहर में मरने पर नरक ।

साहित्यिक परिचय

Kabir Das पढ़े लिखे नहीं थे उन्होंने स्वयं ही कहा है-

मासि कागद छुयो नहीं, कलम गाहो नहीं हाथ।

यह निर्विवाद रूप से सत्य है कि उन्होंने स्वयं अपनी रचनाओं को लिपिबद्ध नहीं किया । इसके पश्चात भी उनकी बोलियों के संग्रह के रूप में रचित कई ग का उल्लेख मिलता है इन ग्रंथो में अगाध- मंगल, अनुराग- सागर, अमरमूल, अक्षर खंड की रमैनी, अक्षर भेद की रमैनी उग्रगीता कबीर की वाणी कबीर गोरख की गोष्टी कबीर की सखी बीजक ‘ ब्रहा निरूपण’, मोहम्मद् बोध,’ रेखता विचारमाला विवेक सागर शब्दावली हंस मुक्तावली ज्ञानसागर आदि प्रमुख हैं । इन ग्रंथों द्वारा कबीर की विलक्षण प्रतिभा का परिचय मिलता है परंतु इनमें से कई ग्रंथों की प्रमाणिकता संबंधित है;अर्थात अभी तक यह निश्चित नहीं किया जा सकता कि यह ग्रंथ कबीर द्वारा ही रचित काव्य के संग्रह हैं अथवा नहीं । 

उदाहरण विद्वानों ने कबीर गोरख की गोष्ठी एवं मोहम्मद बोध आदि ग्रंथों का उल्लेख करते हुए कहा है कि कबीर गोरखनाथ और मोहम्मद- साहब के समकालीन नहीं थे; अतः इन ग्रंथों की प्रमाणिकता संदिग्ध है ।

Kabir Das भावना की प्रबल अनुभूति से युक्त उत्कृष्ट रहस्यवादी, समाज सुधारक, पाखंड के आलोचक, मानवतावादी और समानतावादी कवि थे । इनके काव्य में दो प्रवृत्तियां मिलती हैं- एक में गुरु एवं प्रभुभक्ति, विश्वास, धैर्य, दया, विचार, क्षमा,संतोष आदि विषयों पर रचनात्मक अभिव्यक्ति तथा दूसरी धर्म में पाखंड सामाजिक कुरीतियों आदि के विरुद्ध आलोचनात्मक अभिव्यक्ति देखने को मिलती है । इन दोनों प्रकार के काव्य में कबीर की अद्भुत प्रतिभा का परिचय मिलता है।

कृतियां

Kabir Das की बोलियों का संग्रह बीजक के नाम से प्रसिद्ध है जिसके तीन भाग हैं –
1) साखी – कबीर की शिक्षा और उनके सिद्धांतों का निरूपण अधिकांशतः ‘साखी’ में हुआ है इसमें दोहा छंद का प्रयोग हुआ है –
2) सबद – इसमें कबीर के गेय पद संग्रहीत हैं । गेय पद होने के कारण इनमें संगीतात्मक पूर्ण रूप से विद्यमान है । इन पदों में कबीर के अलौकिक प्रेम और उनकी साधना- पद्धति की अभिव्यक्ति हुई है ।

3) रमैनी – इसमें कबीर के रहस्यवादी और दार्शनिक विचार व्यक्त हुए हैं इसकी रचना चौपाई छंद में हुई है ।

 

भाषा एवं शैली -

Kabir Das पढ़े-लिखे नहीं थे । उन्होंने तो संतो के सत्संग से ही सब कुछ सीखा था इसीलिए उनकी भाषा साहित्यिक नहीं हो सकी । उन्होंने व्यवहार में प्रयुक्त होने वाली सीधी-सादी भाषा में ही अपने उपदेश दिए। उनकी भाषा में अनेक भाषाओं यथा – अरबी, फारसी, भोजपुरी, पंजाबी, बुंदेलखंडी, ब्रजभाषा, खड़ीबोली आदि के शब्द मिलते हैं । इसी कारण उनकी भाषा को पंचमेल खिचड़ी या साधुक्कडी भाषा कहा जाता है । भाषा पर कबीर का पूरा अधिकार था । उन्होंने आवश्यकता के अनुरूप शब्दों का प्रयोग किया ।

 इसीलिए आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने उन्हें वाणी का डिक्टेटर बताते हुए लिखा है- भाषा पर कबीर का जबरदस्त अधिकार था । वाणी के डिक्टेटर थे । जिस बात को उन्होंने जिस रूप से प्रकट करना चाहा है ,उसे उसी रूप में भाषा से कहलवा लिया है – बन गया है तो सीधे-सीधे, नहीं तो दरेरा देकर ।“

 Kabir Das ने सहज, सरल और सरस शैली में उपदेश दिए हैं इसीलिए उनक उपदेशात्मक शैली बोझिल नहीं है । उसमें स्वाभाविकता एवं प्रवाह है । व्यंगात्मकता एवं भावात्मकता उनकी शैली की प्रमुख विशेषताएं हैं ।

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